विवेक रूपी दीपक के बुझ जाने पर तो वह प्राणशून्य कलेवर के समान है – जिनेन्द्रमुनि मसा
गोगुन्दा । विवेक बाहर से नही अर्जित किया जाता। वह हमारे भीतर है।उसे तो बस जगाना पड़ता है। जिस दिन मनुष्य का विवेक जाग्रत हो जाता है, उसी दिन जीवन की काया पलट जाती है। जीवन की जटिलता के साथ दैहिक, दैविक एवम भौतिक तापो से त्राण पाने के लिए भगवान महावीर ने मानव मात्र को एक दृष्टि बोध दिया है और यह दृष्टि बोध सुचिन्तय विचार धारा की दार्शनिक पृष्टभूमि पर आधारित है।उपरोक्त विचार जिनेन्द्रमुनि म सा ने घोड़च स्थित भवन में व्यक्त किये। भगवान ने भी बताया है कि साधक तुम्हारा कदम विवेकशून्य न हो। कदम कदम पर विवेक की आवश्यकता है। विवेक का दीपक लेकर ही तुम्हे चलना है। मुनि ने कहा कि विवेक का दीपक यदि बुझ जाता है तो समझिए कि हम स्वयं बुझ गये। हम स्वयं विनाश की और अग्रसर हो गए।जब तक यह दीपक प्रज्वलित है, तभी तक साधु का साधुत्व और श्रावक का श्रावकत्व है। विवेक रूपी दीपक के बुझ जाने पर तो वह प्राणशून्य कलेवर के समान है। पाप पुण्य धर्म और अधर्म की व्याख्या बड़ी टेडी है। उसे समझने के लिए विवेक का दीपक आवश्यक है। जहाँ विवेक है, वही धर्म है। वही पूण्य है। विवेक के अभाव में पाप एवम अधर्म के अंधकार से समूचा जीवन ही विखण्डित होकर गड़बड़ा जाता है। संत ने कहा गन्ने को पशु भी खाता है और मानव भी, परन्तु दोनों के खाने की क्रिया में अंतर है।मानव गन्ने को खाता नही, उसे केवल चूसता है।उसके भीतर की मिठास का आनन्द लेता है। पशु गन्ने का रस चूसता नही, वह तो घास की भांति खाता है।विवेक और अविवेकी में यही अंतर है। विवेकी आत्मा संसार मे रहती है, वह सार तत्व को ग्रहण करती है। पर उसमे लिप्त नही होती। संसार मे उस आत्मा का जीवन कमलवत होता है। अविवेकी सांसारिक पदार्थों से पाप का संचय करता है ।विवेक से बोलो तो पाप कर्म का संचय नही होता है। भगवान महावीर ने साधक को विवेक का उपदेश दिया है। उन्होंने यह नही कहा कि चलने से हिंसा होती है तो बैठ जाओ।बैठने से हिंसा होती है तो सो जाओ।सोने से भी हिंसा होती है तो विषपान करके जीवन ही समाप्त कर दो। मानवीय अज्ञान की पराकाष्ठा है, जब वह हिंसा से बचने के लिए जीवन ही समाप्त कर दे। विवेक को तो हमारे हर क्षण मन मे जगाये रखना है। यदि हमने विवेक को भुला दिया तो हमारा सबकुछ नष्ट हो जाएगा।